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Tripura Rahasya: The Inner Journey from Bondage to Liberation

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Tripura Rahasya: The Inner Journey from Bondage to Liberation

Tripura Rahasya: The Inner Journey from Bondage to Liberation

Tripura Rahasya: The Inner Journey from Bondage to Liberation

Astrologer Ashish Somani

भारतीय अध्यात्म की गहराइयों में एक रहस्यमय ग्रंथ है — त्रिपुरा रहस्य Tripura Rahasya ,जो केवल देवी या दर्शन की बात नहीं करता, बल्कि चेतना के सूक्ष्म स्तरों की एक प्रतीकात्मक और गूढ़ व्याख्या प्रस्तुत करता है।

Tripura Rahasya हमें बताता है कि कैसे एक शुद्ध आत्मा — जो कि पूर्ण, स्वतंत्र और साक्षी है — धीरे-धीरे अविद्या, मोह, मन, कल्पना, आशा, क्रोध और अहंकार जैसे तत्वों में उलझकर बंधन में फँस जाती है।

और सबसे महत्त्वपूर्ण बात — Tripura Rahasya यह भी दर्शाता है कि हम इस जटिल मानसिक और भावनात्मक संरचना से मुक्ति कैसे पा सकते हैं, और अपने आत्मस्वरूप को अनुभव करके जीवनमुक्ति का रस कैसे प्राप्त कर सकते हैं।

यह ब्लॉग आपको उसी चेतना-यात्रा से परिचित कराएगा — जहाँ आत्मा से मन का जन्म होता है, और मन से संसार का। फिर उसी संसार को पार करते हुए आत्मा अपने स्रोत में लौटती है — यही है मोक्ष की यात्रा

चरण 1: चेतना का पतन और आत्मा की अवनति:

इस चरण को ट्रिपुरा रहस्य में अत्यंत प्रतीकात्मक और कथा रूप में दर्शाया गया है। आइए इस यात्रा को सामान्य जन के लिए सरल भाषा में विस्तार से समझते हैं:

एक समय की बात है — आत्मा (जिसे परा चिति भी कहा गया) — पूर्ण, नित्य, अचल और आनंदरूप थी। वह स्वयं में स्थित थी और कुछ भी चाहने की स्थिति में नहीं थी।

लेकिन जब बुद्धि, जो आत्मा की एक आभा मात्र थी, प्रकट हुई — तो उसने आत्मा से अलग अपनी सत्ता मान ली। यह पहला भ्रम था। उसी क्षण उसे मिल गई एक कुटिल सखी — अविद्या (अज्ञान)। धीरे-धीरे यह सखी इतनी घनिष्ठ हो गई कि बुद्धि ने अविद्या से विवाह कर लिया। यही आत्मा से अलगाव की शुरुआत थी।

अविद्या के गर्भ से जन्मा — मोह। मोह का स्वभाव आकर्षक और भ्रमित करने वाला था। बुद्धि मोह से अत्यधिक प्रभावित हो गई। मोह के साथ रहते-रहते उससे जन्मा — महामोह

अब महामोह से उत्पन्न हुआ — मन। मन ने एक स्त्री कल्पना से विवाह किया और उनसे जन्मे पाँच पुत्र — जिन्हें हम पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ कहते हैं:

  • चक्षु (आँखें — दृष्टि)
  • श्रोत्र (कान — श्रवण)
  • घ्राण (नाक — गंध)
  • रसना (जीभ — स्वाद)
  • त्वक् (त्वचा — स्पर्श)

मन इन इन्द्रियों के माध्यम से विषयों में लिप्त होता गया। वह कल्पना में इतना डूब गया कि अंततः उसकी कल्पना की भूख असीमित हो गई। तभी उसे मिली कल्पना की बहन — आशा। समय के साथ मन ने आशा से विवाह किया, और उनसे उत्पन्न हुए दो विकार:

  • क्रोध — जब आशा पूरी नहीं होती
  • अहंकार — जब आशा पूरी हो जाती है और व्यक्ति स्वयं को बड़ा मानता है

इन इन्द्रियों के माध्यम से मन ने विषयों का सेवन शुरू किया। विषयों के अनुभवों से बने संस्कार, नींद में स्वप्न बनकर प्रकट होने लगे।

इस प्रकार जो आत्मा शुद्ध थी, वह अब अविद्या, मोह, महामोह, मन, कल्पना, आशा, क्रोध, और अहंकार जैसे विकारों की श्रृंखला में फँस गई — और इस चक्र को ही हम बंधन कहते हैं।


चरण 2: जागृति और मोक्ष की ओर

अब इस पतन की प्रक्रिया को पलटने की यात्रा आरंभ होती है — यही मोक्ष मार्ग है। यह साधक की भीतर की पुकार से शुरू होता है:

  1. साधक प्रश्न करता है: “मैं कौन हूँ?”
  2. यह आत्मचिंतन बुद्धि को शुद्ध करता है।
  3. शुद्ध बुद्धि अब अविद्या को त्याग देती है।
  4. मोह की असलियत को जानकर उसे नष्ट कर देती है।
  5. महामोह, मन, कल्पना, ज्ञानेन्द्रियाँ, क्रोध और अहंकार — इन सभी को वश में कर लेती है।
  6. अंततः बुद्धि आत्मा से जुड़ जाती है — यह अवस्था कहलाती है समाधि
  7. फिर होता है — स्वरूप स्फुरण — आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव।

चरण 3: आत्म-साक्षात्कार (Self-Realization)

जब साधक इस बंधन की पूरी श्रृंखला को पहचान लेता है और उसका मूल कारण समझता है, तब उसके भीतर आत्म-बोध जागता है। अब वह यह स्पष्ट देख पाता है कि उसका असली स्वरूप शरीर, मन, इंद्रियाँ या भावनाएँ नहीं, बल्कि शुद्ध आत्मा है। यह आत्मा न तो जन्म लेती है, न मरती है, न ही वह किसी भोग या विकार से प्रभावित होती है।

इस जागृति की प्रक्रिया में, साधक का मोह समाप्त हो जाता है। अब उसमें क्रोध नहीं उठता, क्योंकि कोई अपेक्षा शेष नहीं रहती। अहंकार समाप्त हो जाता है, क्योंकि “मैं” की भावना अब आत्मा में लीन हो जाती है। यह वही अवस्था है जिसे जीवनमुक्ति कहा गया है — जहाँ व्यक्ति संसार में रहते हुए भी संसार से ऊपर होता है।

मोक्ष, केवल मृत्यु के बाद की अवस्था नहीं, बल्कि एक जीवित अनुभव है — जहाँ व्यक्ति हर क्षण आत्मा में स्थित होकर जीवन जीता है। अब वह केवल कर्म करता है, परंतु उसमें आसक्ति नहीं होती।

त्रिपुरा रहस्य Tripura Rahasya  का यही अंतिम संदेश है: “आत्मा जानने योग्य नहीं है, बल्कि अनुभव करने योग्य है।” और यह अनुभव तभी संभव है जब हम अज्ञान, मोह, कल्पना और आशा की जड़ों को पहचानकर भीतर की शुद्ध सत्ता से जुड़ जाएँ।

🌿 जो साधक इस प्रतीकात्मक यात्रा को भीतर समझ लेता है, वही जीवन में सत्य, शांति और मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

  • अब साधक जान जाता है: “मैं न मन हूँ, न शरीर, न अहंकार — मैं शुद्ध आत्मा हूँ।”
  • यह स्थिति ही मोक्ष है — जहाँ न कोई बंधन है, न इच्छा, न क्रोध।
  • यही त्रिपुरा रहस्य Tripura Rahasya का अंतिम संदेश है: “आत्मा जानने योग्य नहीं, अनुभव करने योग्य है।”

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